लेख-निबंध >> टीस का सफर टीस का सफरसुनीता बुद्धिराजा
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नारी मन को उजागर करते कुछ लेख
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आज समय बहुत बदल गया है। आज नारी अपनी शक्ति रको पहचान चुकी है। पुरूष यदि प्रवचन करता है तो वह भी अन्नयः को निःशब्द नहीं झेलती । वह अपना मार्ग
स्वयं बनाने में सार्थक है। अतीत ने जिस अचार निष्ठा को इतना मादक रूप
दिया था, वह लुप्त हो चुकी है। धर्माचार्यों ने वैराग्य और ज्ञान को जो
महत्ता दी है। नारी अब नकली मुखौटा उतार, वास्तविक रूप देखना सीख गई है।
टीस का सफर में सुनीता ने, इतने ढेर सारे रेखा चित्रों को बड़े यत्न से सँवारा है, इसमें कौन अच्छा है, कौन दुर्बल यह कह पाना न मेरे लिए सम्भव है और न उचित है । किन्तु सुनीता का यह स्तुत्य प्रयास निश्चित ही गुणी पाठक जनों के बीच समादूत होगा। एक नारी ही इतनी सूक्ष्मता से नारी मन को उजागर कर सकती थी, वही सुनीता ने किया है।
टीस का सफर में सुनीता ने, इतने ढेर सारे रेखा चित्रों को बड़े यत्न से सँवारा है, इसमें कौन अच्छा है, कौन दुर्बल यह कह पाना न मेरे लिए सम्भव है और न उचित है । किन्तु सुनीता का यह स्तुत्य प्रयास निश्चित ही गुणी पाठक जनों के बीच समादूत होगा। एक नारी ही इतनी सूक्ष्मता से नारी मन को उजागर कर सकती थी, वही सुनीता ने किया है।
काश मैं अपनी मां की टीस को भी शब्दबद्ध कर पाती !
जिन्होंने मुझे हमेशा स्नेह ही दिया है उन अंकल और आंटी डॉ. धर्मवीर भारती और पुष्पा जी के लिए यह ‘टीस का सफर’।
....सुनीता ने जब मुझसे पहली बार अनुरोध किया कि मैं उनकी इस पुस्तक की भूमिका लिखूं तो मैं दो कारणों से झिझकी थी।
एक, मैं भूमिका लिखने या लिखवाने में विश्वास नहीं करती, आपकी कृति तो स्वयं ही अपनी भूमिका है। दूसरा कारण व्यक्तिगत था। मेरी ही पुत्री मृणाल का संस्मरण भी इसी कृति में संकलित है, मुझे इससे भी कुछ हिचक हुई, फिर, सुनीता के पत्र को पढा। उन्होंने लिखा था, मेरी पुस्तक में मृणाल के संबंध में भी कुछ रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। आप जब बगीचे में जाती हैं तो भूल जाती हैं कि कौन-सा पौधा किसने लगाया है, चाहे किसी की उँगलियों में काँटे ही क्यों न चुभें, वहाँ उपवन से उठती भीनी खुशबू मन को भिगो देती है, तब द्वेष या राग के लिए स्थान नहीं रहता।’
मुझे वास्तव में, सुनीता के इस उपवन की सुगंध अच्छी लगी और मुझे विश्वास है कि पाठकों को भी अच्छी लगेगी। सुनीता ने प्रत्येक क्षेत्र से नारी को चुना है और विवेक से चुना है। आप सोनल मानसिंह का रेखाचित्र पढ़ें, किरण बेदी का, शरनरानी का या वैजयंतीमाला का, प्रत्येक में आप नारी का एक अनूठा रूप पाएँगे। लगता है पराजय ही उसकी ललाट-लिपि में अंकित है; किंतु वही हार है उसकी जीत। जीतता रहा है उसका ज्ञान, उसका धर्म, उसकी सहिष्णुता। वह वैराग्य के मद को चूर्ण करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। पुरुष पौरुष भले ही वाणी से उसकी महत्ता स्वीकार न करे, कहीं-न-कहीं तपोनिरता पार्वती जैसा नारी का मनोज्ञ सुंदर रूप उसे शंभु-सा याचक, दीन बना ही देता है।
आज, समय बहुत बदल गया है। आज नारी अपनी शक्ति को पहचान चुकी है। पुरुष यदि प्रवचना करता है तो भी अन्याय को निःशब्द नहीं झेलती। वह अपना मार्ग स्वयं बनाने में समर्थ है। अतीत ने जिस आचारनिष्ठा को इतना मादक रूप दिया था, वह लुप्त हो चुकी है। धर्माचार्यों ने वैराग्य और ज्ञान को भी महत्ता दी थी, वह भी लुप्त होती जा रही है। नारी अब नकली मुखौटा, उतार, वास्तविक रूप देखना सीख गई है। महाकाल का प्रत्येक सशक्त पदाघात धरती को इसी भाँति धँसाता जाएगा; कुछ बदलेगा, कुछ टूटेगा कुछ विकृत होगा, नवीन बनेगा और उसी नवीनता के श्रेष्ठ रूप को ग्रहण कर अबला धीरे-धीरे सबल बनेगी।
सुनीता ने इतने ढेर सारे रेखाचित्रों को बड़े यत्न से सँवारा है, इनमें कौन अच्छा है, कौन दुर्बल, यह कह पाना न मेरे लिए संभव है न उचित। किंतु सुनीता का यह स्तुत्य प्रयास निश्चय ही गुणी पाठकजनों के बीच समादृत होगा। एक नारी ही इतनी सूक्ष्मता से नारी समन को उजागर कर सकती थी, वही सुनीता ने किया है।
वसंत सेना, एक बार बिजली को संबोधन कर कहती है-‘हे विद्युत ! अगर बादल गरजता है तो गरजे, पुरुष तो निष्ठुर होते ही हैं, किंतु तू तो स्त्री है, तू भी क्या प्रमदाओं के दुख को नहीं जानती ?
जिन्होंने मुझे हमेशा स्नेह ही दिया है उन अंकल और आंटी डॉ. धर्मवीर भारती और पुष्पा जी के लिए यह ‘टीस का सफर’।
....सुनीता ने जब मुझसे पहली बार अनुरोध किया कि मैं उनकी इस पुस्तक की भूमिका लिखूं तो मैं दो कारणों से झिझकी थी।
एक, मैं भूमिका लिखने या लिखवाने में विश्वास नहीं करती, आपकी कृति तो स्वयं ही अपनी भूमिका है। दूसरा कारण व्यक्तिगत था। मेरी ही पुत्री मृणाल का संस्मरण भी इसी कृति में संकलित है, मुझे इससे भी कुछ हिचक हुई, फिर, सुनीता के पत्र को पढा। उन्होंने लिखा था, मेरी पुस्तक में मृणाल के संबंध में भी कुछ रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। आप जब बगीचे में जाती हैं तो भूल जाती हैं कि कौन-सा पौधा किसने लगाया है, चाहे किसी की उँगलियों में काँटे ही क्यों न चुभें, वहाँ उपवन से उठती भीनी खुशबू मन को भिगो देती है, तब द्वेष या राग के लिए स्थान नहीं रहता।’
मुझे वास्तव में, सुनीता के इस उपवन की सुगंध अच्छी लगी और मुझे विश्वास है कि पाठकों को भी अच्छी लगेगी। सुनीता ने प्रत्येक क्षेत्र से नारी को चुना है और विवेक से चुना है। आप सोनल मानसिंह का रेखाचित्र पढ़ें, किरण बेदी का, शरनरानी का या वैजयंतीमाला का, प्रत्येक में आप नारी का एक अनूठा रूप पाएँगे। लगता है पराजय ही उसकी ललाट-लिपि में अंकित है; किंतु वही हार है उसकी जीत। जीतता रहा है उसका ज्ञान, उसका धर्म, उसकी सहिष्णुता। वह वैराग्य के मद को चूर्ण करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। पुरुष पौरुष भले ही वाणी से उसकी महत्ता स्वीकार न करे, कहीं-न-कहीं तपोनिरता पार्वती जैसा नारी का मनोज्ञ सुंदर रूप उसे शंभु-सा याचक, दीन बना ही देता है।
आज, समय बहुत बदल गया है। आज नारी अपनी शक्ति को पहचान चुकी है। पुरुष यदि प्रवचना करता है तो भी अन्याय को निःशब्द नहीं झेलती। वह अपना मार्ग स्वयं बनाने में समर्थ है। अतीत ने जिस आचारनिष्ठा को इतना मादक रूप दिया था, वह लुप्त हो चुकी है। धर्माचार्यों ने वैराग्य और ज्ञान को भी महत्ता दी थी, वह भी लुप्त होती जा रही है। नारी अब नकली मुखौटा, उतार, वास्तविक रूप देखना सीख गई है। महाकाल का प्रत्येक सशक्त पदाघात धरती को इसी भाँति धँसाता जाएगा; कुछ बदलेगा, कुछ टूटेगा कुछ विकृत होगा, नवीन बनेगा और उसी नवीनता के श्रेष्ठ रूप को ग्रहण कर अबला धीरे-धीरे सबल बनेगी।
सुनीता ने इतने ढेर सारे रेखाचित्रों को बड़े यत्न से सँवारा है, इनमें कौन अच्छा है, कौन दुर्बल, यह कह पाना न मेरे लिए संभव है न उचित। किंतु सुनीता का यह स्तुत्य प्रयास निश्चय ही गुणी पाठकजनों के बीच समादृत होगा। एक नारी ही इतनी सूक्ष्मता से नारी समन को उजागर कर सकती थी, वही सुनीता ने किया है।
वसंत सेना, एक बार बिजली को संबोधन कर कहती है-‘हे विद्युत ! अगर बादल गरजता है तो गरजे, पुरुष तो निष्ठुर होते ही हैं, किंतु तू तो स्त्री है, तू भी क्या प्रमदाओं के दुख को नहीं जानती ?
यदि गर्जति वारिधरो गर्जतु तन्नाम निष्ठुरा: पुरुषा
अयि विद्युत, प्रमदानां किमपि न दुःखं विजानासि ?
अयि विद्युत, प्रमदानां किमपि न दुःखं विजानासि ?
66, गुलिस्ताँ कालोनी,
लखनऊ
लखनऊ
-शिवानी
टीस का सफर
दर्द कभी दस्तक देकर नहीं आता। वक्त के पैरों की आहट कभी सुनाई नहीं देती।
दर्द तो सूरज की पहली किरण के साथ आता है, आखिरी किरण के साथ लौट जाता है,
फिर से वापस आने के लिए चाँद की पहली कला के साथ ओस-सा चमकता है और
सोलहवीं कला के साथ पूर्ण होकर विलीन हो जाता है। कभी समुद्र की पहली लहर
के साथ कोई नाम अक्सर आकर पैरों के आस-पास मँडराने लगता है और कभी उसी लहर
के साथ एक अनंत विस्तार में वापस लौट जाता है, उसमें लीन होने के लिए। मन
है कि देह को हवा-सा छू जाने वाले नाम को तो सुगंध की तरह उल्लास के साथ
स्वीकार करता है और फिर हवा के उड़ जाने के बाद, सुगंध के खो जाने के बाद,
लहर के टूट जाने के बाद की टीस को अपने से भी छुपाता फिरता है। यही तो है
‘टीस का सफर’।
आदमी जब अपने बारे में सच-सच कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता तब दूसरों के मन की परतों को खोलने की कोशिश करने लगता है। वे दूसरे जब बहुत भीतर से अपने सच को उजागर करते हैं तब वे ‘दूसरे’ नहीं रह जाते, न उनके सच ही सिर्फ उन्हीं के सच रह जाते हैं। वे दूसरे ‘हम’ बन जाते हैं और ‘उनके सच’ बन जाते हैं ‘हमारे सच’। बहुत कठिन है अपने मन की गहराई के भीतर उतर कर पानी-सा साफ-साफ देखना, उसकी काली छायाओं को और सफेद जिंदगी पर लगे दागों के साथ-साथ उसे जस का तस उकेरना। वे लोग धन्य हैं जो अपने बारे में सच बोलने की हिम्मत रखते हैं।
अपने आपको सही-सही अपने सामने खोलने की हिम्मत जुटाने की कोशिश की तो आस-पास घटते घटना-क्रम की नायिकाओं से बातचीत करती गई। संयोग से सभी के काथ कुछ न कुछ ऐसा घटा था जिसका कोई-न-कोई रंग मेरी टीस के रंग से मेल खाता था। उनके अनुभवों को लिपिबद्ध करती तो हर बार लगता कि आत्मकथा लिख रही हूँ। ये रेखाचित्र कहीं-न-कहीं से आपको भी अपने जैसे लगेंगे क्योंकि महसूस करने की शक्ति, सभी में कमो-बेश एक-सी होती है, देश, काल भाषा उम्र लिंग चाहे जो भी हो, केवल अभिव्यक्ति का माध्यम बदल जाता है। इन रेखाचित्रों को शब्दांकित करते समय मुझे यही लगता रहा कि औरत की टीस ‘जाके पैर न फटी बिवाई’-वाली टीस नहीं है कि उसे कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता।
मेरे सहयोगी प्रवीण आहूजा की मदद से पांडुलिपी तैयार की जा सकी, उन्हें शुभाशीष।
शिवानी ने पुस्तक के संबंध में कुछ शब्द लिखने के मेरे आग्रह को स्वीकार कर मेरी टीस को सम्मानित किया है, उन्हें मेरा प्रणाम।
आदमी जब अपने बारे में सच-सच कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता तब दूसरों के मन की परतों को खोलने की कोशिश करने लगता है। वे दूसरे जब बहुत भीतर से अपने सच को उजागर करते हैं तब वे ‘दूसरे’ नहीं रह जाते, न उनके सच ही सिर्फ उन्हीं के सच रह जाते हैं। वे दूसरे ‘हम’ बन जाते हैं और ‘उनके सच’ बन जाते हैं ‘हमारे सच’। बहुत कठिन है अपने मन की गहराई के भीतर उतर कर पानी-सा साफ-साफ देखना, उसकी काली छायाओं को और सफेद जिंदगी पर लगे दागों के साथ-साथ उसे जस का तस उकेरना। वे लोग धन्य हैं जो अपने बारे में सच बोलने की हिम्मत रखते हैं।
अपने आपको सही-सही अपने सामने खोलने की हिम्मत जुटाने की कोशिश की तो आस-पास घटते घटना-क्रम की नायिकाओं से बातचीत करती गई। संयोग से सभी के काथ कुछ न कुछ ऐसा घटा था जिसका कोई-न-कोई रंग मेरी टीस के रंग से मेल खाता था। उनके अनुभवों को लिपिबद्ध करती तो हर बार लगता कि आत्मकथा लिख रही हूँ। ये रेखाचित्र कहीं-न-कहीं से आपको भी अपने जैसे लगेंगे क्योंकि महसूस करने की शक्ति, सभी में कमो-बेश एक-सी होती है, देश, काल भाषा उम्र लिंग चाहे जो भी हो, केवल अभिव्यक्ति का माध्यम बदल जाता है। इन रेखाचित्रों को शब्दांकित करते समय मुझे यही लगता रहा कि औरत की टीस ‘जाके पैर न फटी बिवाई’-वाली टीस नहीं है कि उसे कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता।
मेरे सहयोगी प्रवीण आहूजा की मदद से पांडुलिपी तैयार की जा सकी, उन्हें शुभाशीष।
शिवानी ने पुस्तक के संबंध में कुछ शब्द लिखने के मेरे आग्रह को स्वीकार कर मेरी टीस को सम्मानित किया है, उन्हें मेरा प्रणाम।
-सुनीता बुद्धिराजा
स्त्री
कभी एक कहानी सुनी थी।
वह एक स्त्री थी और उसका था एक पुरुष। स्त्री के खुले केश पुरुष को अज्ञात बंधन में बाँध लेते थे। बिना किसी सज्जा और आवरण के स्त्री-पुरुष को मानो कैद में जकड़ लेती थी। आँखें खोलती तो पुरुष गहराई में खो जाता; बंद करती तो उन्हीं में मन-प्राण को समेट लेता। उसकी भ्रू-भंगिमा से पुरुष की दृष्टि संचालित होती। उसकी अनामिका से पुरुष का कर्म दिशा पाता। वह स्त्री पुरुष की आवश्यकता थी, उसके प्राणों की गति, उसका चेतन-अचेतन सब कुछ वह स्त्री ही थी। पुरुष ने स्त्री का वरण किया। स्त्री अब कोई और नहीं, उसकी पत्नी थी, उसकी अपनी संपत्ति। पुरुष द्वारा स्त्री का वह वरण करना था कि पुरुष स्त्री की आवश्यकता बन गया, उसकी दृष्टि का संचालक, उसकी गतिविधि का परिचालक। लेकिन स्त्री की सौंदर्यराशि अब भी बाँधती थी लोगों को। पुरुष की संपत्ति’ पर कोई और दृष्टि पड़े, पुरुष से सहा न गया। खुलकर नहीं, प्रकारांतर से, अपनी बात उसने स्त्री के सम्मुख रख दी, ‘‘प्रिये, मैंने तुम्हारा वरण किया है, किंतु किसी भी भाँति यह अन्य पुरुषों पर व्यक्त नहीं होता कि अब तुम सहज नहीं हो, मेरी हो। यह पुष्प-हार यदि तुम अपने हाथों में धारण करो, कंठ में सजाओ, मेरी वेणी में गूँथों तो लोग समझ जाएँगे कि तुम्हारी ओर दृष्टि उठाकर देखना है। उससे तुम्हारा सौंदर्य भी द्विगुणित होगा।’’
स्त्री ने वेणी में गूँथा फूलों को, हाथों में पहनी पुष्प-माला और अनजाने ही बेड़ियाँ पहनकर आत्म-समर्पण कर दिया पुरुष के सम्मुख।
यह कथा न जाने कब की है, लेकिन सृष्टि के प्रारंभ से ही स्त्री के एक बंधन को स्वीकार करने की है, बंधन जिसे वह आज खोलना चाहकर भी नहीं खोल पाती। सिंदूर, बिंदी प्रसाधन और अलंकरण से युक्त हो स्वयं को दर्पण में निहारती है और मंत्र-मुग्ध होती है। आँखों में काजल, लटों का सुलझाना, हाथों में कंगन पैरों में पायल, गले में चंद्रहार, कमर में करधनी धारण करके वह उस पुरुष की प्रतीक्षा करती है जो उसकी ओर प्यास से देखे। पुरुष की वह प्यास ही स्त्री के श्रृंगार को सार्थक करती है, उसे सुरक्षा का बोध देती है।
क्या अभी भी वह प्यास जगा सकती है ? क्या अभी भी पुरुष को वह निजी संपत्ति होने का बोध कराती है ? क्या अभी भी उसकी ओर किसी अन्य की दृष्टि उठने पर उसे पुष्प-हार की बेड़ियों में जकड़ने की इच्छा होती है ? स्त्री का आत्म-विश्वास कहीं डगमगाता है। वह हर कीमत पर पुरुष को अपनी आँखों की गहराई में डुबोए रखना चाहती है। जो बंधन पुरुष ने उसे दिया था, उससे वह मुक्त होना नहीं चाहती। या तो उस बंधन में बँधे नहीं, बँध गई तब फिर उसके खुलने पर उसे मुक्ति का आभास नहीं होता, जीवन में कहीं कोई दरार महसूस करती है वह, उस पर आँख से निकली एक बूँद भी गिरी तो वह भीतर तक कुछ को भिगो देगी।
लेकिन, अहसास यह है क्या ? कुछ समेटने की इच्छा, कुछ बाँटने की इच्छा, बँधे रहने की इच्छा या फिर मुक्ति की कामना ? देह के प्रति अपनी चेतना या फिर वांछनीय बने रहने की अभिलाषा ? कोई हमें चाहता है, किसी को हमारी आवश्यकता है, यह सुखद अनुभूति है।
वह वधू है।
वह पत्नी है।
वह जाया है।
वह माँ है।
वह काम्य है।
वह प्रेरणा है।
वह भोग्या है।
वह गृहिणी है।
वह दायित्वपूर्ति का माध्यम है।
वह त्याज्य है।
वह एक स्त्री थी और उसका था एक पुरुष। स्त्री के खुले केश पुरुष को अज्ञात बंधन में बाँध लेते थे। बिना किसी सज्जा और आवरण के स्त्री-पुरुष को मानो कैद में जकड़ लेती थी। आँखें खोलती तो पुरुष गहराई में खो जाता; बंद करती तो उन्हीं में मन-प्राण को समेट लेता। उसकी भ्रू-भंगिमा से पुरुष की दृष्टि संचालित होती। उसकी अनामिका से पुरुष का कर्म दिशा पाता। वह स्त्री पुरुष की आवश्यकता थी, उसके प्राणों की गति, उसका चेतन-अचेतन सब कुछ वह स्त्री ही थी। पुरुष ने स्त्री का वरण किया। स्त्री अब कोई और नहीं, उसकी पत्नी थी, उसकी अपनी संपत्ति। पुरुष द्वारा स्त्री का वह वरण करना था कि पुरुष स्त्री की आवश्यकता बन गया, उसकी दृष्टि का संचालक, उसकी गतिविधि का परिचालक। लेकिन स्त्री की सौंदर्यराशि अब भी बाँधती थी लोगों को। पुरुष की संपत्ति’ पर कोई और दृष्टि पड़े, पुरुष से सहा न गया। खुलकर नहीं, प्रकारांतर से, अपनी बात उसने स्त्री के सम्मुख रख दी, ‘‘प्रिये, मैंने तुम्हारा वरण किया है, किंतु किसी भी भाँति यह अन्य पुरुषों पर व्यक्त नहीं होता कि अब तुम सहज नहीं हो, मेरी हो। यह पुष्प-हार यदि तुम अपने हाथों में धारण करो, कंठ में सजाओ, मेरी वेणी में गूँथों तो लोग समझ जाएँगे कि तुम्हारी ओर दृष्टि उठाकर देखना है। उससे तुम्हारा सौंदर्य भी द्विगुणित होगा।’’
स्त्री ने वेणी में गूँथा फूलों को, हाथों में पहनी पुष्प-माला और अनजाने ही बेड़ियाँ पहनकर आत्म-समर्पण कर दिया पुरुष के सम्मुख।
यह कथा न जाने कब की है, लेकिन सृष्टि के प्रारंभ से ही स्त्री के एक बंधन को स्वीकार करने की है, बंधन जिसे वह आज खोलना चाहकर भी नहीं खोल पाती। सिंदूर, बिंदी प्रसाधन और अलंकरण से युक्त हो स्वयं को दर्पण में निहारती है और मंत्र-मुग्ध होती है। आँखों में काजल, लटों का सुलझाना, हाथों में कंगन पैरों में पायल, गले में चंद्रहार, कमर में करधनी धारण करके वह उस पुरुष की प्रतीक्षा करती है जो उसकी ओर प्यास से देखे। पुरुष की वह प्यास ही स्त्री के श्रृंगार को सार्थक करती है, उसे सुरक्षा का बोध देती है।
क्या अभी भी वह प्यास जगा सकती है ? क्या अभी भी पुरुष को वह निजी संपत्ति होने का बोध कराती है ? क्या अभी भी उसकी ओर किसी अन्य की दृष्टि उठने पर उसे पुष्प-हार की बेड़ियों में जकड़ने की इच्छा होती है ? स्त्री का आत्म-विश्वास कहीं डगमगाता है। वह हर कीमत पर पुरुष को अपनी आँखों की गहराई में डुबोए रखना चाहती है। जो बंधन पुरुष ने उसे दिया था, उससे वह मुक्त होना नहीं चाहती। या तो उस बंधन में बँधे नहीं, बँध गई तब फिर उसके खुलने पर उसे मुक्ति का आभास नहीं होता, जीवन में कहीं कोई दरार महसूस करती है वह, उस पर आँख से निकली एक बूँद भी गिरी तो वह भीतर तक कुछ को भिगो देगी।
लेकिन, अहसास यह है क्या ? कुछ समेटने की इच्छा, कुछ बाँटने की इच्छा, बँधे रहने की इच्छा या फिर मुक्ति की कामना ? देह के प्रति अपनी चेतना या फिर वांछनीय बने रहने की अभिलाषा ? कोई हमें चाहता है, किसी को हमारी आवश्यकता है, यह सुखद अनुभूति है।
वह वधू है।
वह पत्नी है।
वह जाया है।
वह माँ है।
वह काम्य है।
वह प्रेरणा है।
वह भोग्या है।
वह गृहिणी है।
वह दायित्वपूर्ति का माध्यम है।
वह त्याज्य है।
सुमंगलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत्
सौभाग्यमस्यै दत्वा याथास्तं विपरेतन।
सौभाग्यमस्यै दत्वा याथास्तं विपरेतन।
इस मंगलमयी वधू को आप आकर देखें और इसके सौभाग्य के लिए कामना करें।
वह वधू है। उसने वर का वरण किया है। वर ने उसका वरण किया है। उस वधू के साथ वर का सुख-दुख, सौभाग्य, दुर्भाग्य मान अपमान सब कुछ जुड़ जाते हैं। वह इन सबकी संभव से साझीदार बनती है, तो वर पुरुष की अर्द्धांगिनी-पत्नी-बन जाती है। उस पति को ही वह जन्म देती है, उसी की संतान के रूप में, तो जाया बनती है। जन्म देकर माँ बनती है। तो क्या अब वह काम्य प्रेरणा नहीं रही ? दायित्व बढ़ने से क्या वह ‘सुमंगली’ नहीं है, जिसका सौभाग्य कांक्षित है ? यदि ऐसा नहीं तो क्यों टूटती है वह दिन-रात, शहर-ग्राम- हर समय, हर स्थान। वह कौन-सा दर्द है, वह कैसी जिजीविषा है ?
वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गई है। शहर में है तो अफसरी से लेकर क्लर्की तक, वकालत से लेकर राजनीति तक, कला की दुकान लगाने से लेकर देह सँवारने तक, हर काम में दक्ष है, और पुरुष के साथ सहयोग करती है। गाँव में है तो गोबर के कंडे थापने से लेकर खेत में बुआई तक, पुरुष के साथ कर्मलीन है। परंतु, क्या वह पुरुष से भी सहयोग की अपेक्षा नहीं कर सकती ? श्रम-शक्ति का विभाजन तो जब था तब था। घर बार स्त्री का काम, कमाकर लाना पुरुष का काम। लेकिन, आज यदि कमाकर लाने में स्त्री पुरुष के बराबर है तो क्या घर चलाने की भी जिम्मेदारी पुरुष को स्त्री के साथ बाँटने की आवश्यकता नहीं है ? पुरुष का यह कैसा पौरुष है जो जहाँ चोट खाकर जगना चाहिए वहाँ जगता नहीं ? अहसास क्या केवल वांछनीय बने रहने का है या उस युग से लेकर आज इस युग तक भी असुरक्षित महसूस करती है अपने आपको वह ?
दक्ष प्रजापति को यदि यह पता होता कि अपने यज्ञ में जामाता शिव और पुत्री सती को न्योता न देकर वे एक ऐसी कुप्रथा के जन्म का कारण बनने वाले हैं, जिसमें युगों-युगों तक स्त्रियाँ होम होती रहेंगी तो शायद वे शिव के साथ अपना वैमनस्य भुलाकर उन्हें आमंत्रित कर ही लेते। पति के सम्मान की रक्षा के लिए पत्नी तब होम हुई थी। वह सहचरी, सहधर्मिणी का शायद पहली बार अनुचरी और अनुगामिनी बनना था। उस समय स्त्री ने पुरुष को अपना स्वामी माना, तब से वह स्वामी ही बना रहा। आज तक है, और उसका यह स्वामित्व स्त्री पर ही है।
राजा हरिश्चंद्र से यदि कोई यह पूछता कि तुम्हें किसने यह अधिकार दिया कि तुम अपने एक सत्य की रक्षा के लिए जीवन के दूसरे बड़े सत्य-अपनी पत्नी और पुत्र-की आहुति दे दो ? यदि तुम्हें निर्वाह नहीं करना था तो विवाह कर पत्नी का दायित्व लिया क्यों था ? और वह पत्नी भी सहती रही, पति द्वारा छोड़े जाने का दंश, पुत्र की मृत्यु का दंश। शैव्या ही बनी हरिश्चंद्र के सत्य के यज्ञ की सामग्री, उस यज्ञ की समिधा।
राम तो थे न मर्यादा पुरुषोत्तम ! पिता और श्वसुर-गृह में सुखों की शय्या की आदी सीता राम की अनुचरी बन वन को चली गई। तेरह वर्ष, तारों की छाँह के नीचे, पर्ण के बिछौने पर जिस सीता ने व्यतीत कर दिए, रावण से तिनके की आड़ में अपने शील की जो रक्षा करती रही, उसी सीता को देनी पड़ी अग्नि-परीक्षा-क्या राम के मन में संदेह नहीं उपजा था ? उस संदेह का निवारण अग्नि-परीक्षा के बाद भी नहीं हुआ, क्योंकि नगर के एक धोबी की छिपकर सुनी हुई बात ने उसे फिर से जगा दिया और गर्भवती सीता को फिर से वनवास भोगना पड़ा। शंकालु नहीं था यदि राम का मन, तो क्यों नहीं राज-पाट त्यागकर वह भी चल दिए सीता के साथ या क्यों नहीं बता दिया प्रजा को कि राजा को भी अपना निजी जीवन जीने का अधिकार है ? तभी तो आज जब पूजा-गृह में प्रार्थना का स्वर गूँजता है और परिवार में राम जैसे आदर्श पुरुष की कामना की जाती है, कि ‘हे प्रभु, हमें पुत्र दो तो राम जैसा, भाई दो तो राम जैसा, राजा दो तो राम जैसा, शिष्य तो राम जैसा, मित्र दो तो राम जैसा, और तो और शत्रु दो तो भी राम जैसा’, तब कोई नवयौवना राम जैसे पति की कामना नहीं करती।
युग के बदलने ने स्त्री के प्रति न तो पुरुष के व्यवहार में किसी प्रकार का अंतर लाने में सहयोग दिया और न ही उसकी पीड़ा को कम किया। स्त्री स्वयं भी अपने प्रति अनुदार हो गई। गांधारी आँखों पर पट्टी बाँधकर आजीवन धृतराष्ट्र के अंधेपन का शोक मनाती रही और द्रौपदी इच्छा-अनिच्छा से पाँच पतियों को समर्पित होती रही। कृष्ण रुक्मिणी का हरण कर ले गए और राधा को त्याग गए। न सही राधा ऐतिहासिक पात्र, सूर की अंधी आँखों से रचित वह वास्तविकता का बोध तो कराती रही।
स्त्री से सती-सावित्री होने की ही अपेक्षा की जाती रही, किसी एक समय, स्थान अथवा धर्म में नहीं, अलग-अलग समय में, अलग-अलग परिस्थितियों और परिवेश में, अलग-अलग जाति और धर्मों में। जोन ऑफ आर्क, ईसाइयों, की अपेक्षाओं का उदाहरण है। उधर हजरत मुहम्मद की बेगमें पवित्रता की ऐसी मूर्ति कि उन पर उँगली उठानेवाले सलमान रुश्दी पर मौत का फरमान जारी कर दिया गया। उसी इसलाम में एक ओर स्त्रियाँ बुर्का पहन हम किसी और के लिए उपलब्ध नहीं के झंडे गाढ़ती हैं, और फिर जब परदा छोड़ता है तो मीनाकुमारी, सायराबानों और नूरजहाँ हो जाती हैं। फिर चाहे अपने अभिनय और स्वरों के जादू से लाखों-करोड़ों लोगो की आँखों में बस जाती हैं।
वह स्त्री है, वह शाहबानों है जो पुरुषों के खिलाफ आवाज उठाती है। वह स्त्री है, वह रूप कुँवर है जो पति की चिता पर सती हो जाती है। वह कहीं बहती हुई नदी है, जिसमें हाथ धोना बहुत से लोगों का धर्म है। कहीं वह जलता हुआ अंगारा है जो कोठे पर बैठकर शरीर और मन दोनों से ही दहकती है और जाने किस किस को ठंडक पहुँचाती है। विश्वयुद्ध के थके सैनिकों की जब किसी शहर के पास आमद होती तो कोठों पर जाने की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दे दी जाती कि अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए वे घरेलू औरतों के साथ व्यभिचार न करने लगें।
स्वयं पुरुष के प्रति उसने अपना दायित्व समझा हो अथवा वह दायित्व-बोध उसे औरों द्वारा कराया गया हो, निर्वाह वह करती रही है, बिना किसी प्रतिफल के। वह द्रोपदी बनकर जुए में दाँव पर लगती रही है, लेकिन स्वर्गारोहण के समय रास्ते में गिर जाने पर अपने पतियों द्वारा पीछे मुड़कर देखने की अपेक्षा करने का अधिकार उसका नहीं है। वह पद्मिनी है तो जौहर करे और सती हो जाए, वह कर्मावती है तो अकबर को राखी भेजे, लक्ष्मीबाई है तो देश के लिए लड़ मरे, अरुणा आसफअली है तो स्वाधीनता के संग्राम में जुट जाए। वह माँ है तो पन्ना बने, वह पत्नी है तो शैव्या बने या फिर शालिनी मलहोत्रा बनकर, अपने ऊपर ह्विस्की उँडेलकर पति द्वारा जला डाली जाए। वह अलका और मुन्नी है तो गले में फंदा डालकर फाँसी लगा ले क्योंकि उसका पिता उसके लिए दहेज का जुगाड़ नहीं कर सकता। वह चाहे किसी गोत्र-कुल की हो, यदि वह स्त्री है तो उसे दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती मानकर कम से कम आज उसकी आराधना नहीं की जाती।
वह तब भी दुष्यंत द्वारा त्यागी जाती थी और उसकी संतान को वहन करती थी। आज भी पुरुष साफ दामन हो अलग हो जाता है और स्त्री ही व्यभिचारिणी कहलाती है। उसके लिए नियोग द्वारा वंश को बढ़ाने की व्यवस्था की पुरुष ने, उसके लिए एक, दो और तीन कमरों की व्यवस्था की पुरुष ने।
वह स्त्री है। भारत की वह गौरवपूर्ण स्त्री है जो एक कमरे की स्त्री है। ज्यादातर स्त्रियाँ एक ही कमरे में बंद हैं, उनसे कुछ कम हैं जो दो कमरे की औरतें हैं और वे स्त्रियाँ तो नगण्य हैं जो तीन कमरों में जिदगी जीती हैं। एक कमरे वाली स्त्री वह है जिसकी सारी जिंदगी रसोई में बसर होती है। दो कमरे वाली स्त्रियों का जीवनक्रम रसोई और बिस्तर से जुड़ा है। ऐसी स्त्रियाँ कम हैं जो रसोई और बिस्तर के बाद घर की बैठक में भी आकर बैठती हैं और वहाँ किसी चर्चा में भाग लेती हैं। पुरुष प्रधान समाज में अपना अलग अस्तित्व बनानेवाली स्त्रियों की गिनती तो उँगलियों पर की जा सकती है।
कहने को समय बदल गया। स्त्री प्रधानमंत्री हो गई, जज, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर, अफसर, और कलक्टर हो गई, अभिनय से लेकर पदयात्रा तक करने लगी, कवयित्री और समाज-सेविका बन गई, संपादक और मॉडल बन गई, लेकिन आम हिंदुस्तानी स्त्री की अपनी कोई भाषा कभी नहीं बनी। न उस वक्त थी जब कुंती ने उसे अपने पाँच पुत्रों के बीच बाँध दिया था, न आज है जब वह दहेज के बिना अपने लिए पति तलाशती बूढ़ी हो जाती है। सदियों से वह इसी मानसिकता में पत्नी है कि विवाह उसके लिए अनिवार्य है। पति के बिना नारी नारी नहीं है, पुत्रवती हुए बिना उसका जीवन व्यर्थ है, वह अपने निर्णय नहीं ले सकती। उसकी साधना और परिवार के प्रति दायित्वों का निर्वाह ही उसे पूर्ण बनाते हैं। पूर्णता की कामना उसने स्वयं भी की अवश्य है, लेकिन उसके लिए उसने कीमत क्या चुकाई है ? मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था, ‘‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।’’ लेकिन एक स्त्री वह थी जिसे परदे के पीछे घुटकर मरना स्वीकार्य नहीं था। वह खुली हवा में साँस लेना चाहती थी। स्वाधीनता आंदोलन में वह बापू की लाठी बनी और स्वाधीनता के बाद इंदिरा अम्माँ बनकर करोड़ों के मन में बस गई। फिर भी, स्त्री का जलना बंद नहीं हुआ। शराब के नशे में पति उसे पीटता रहा, वह पिटती रही, चुपचाप मुँह सीकर; क्योंकि उसकी आवाज बंद हो गई थी। चुप रहना और सहना ही नारी का परम धर्म है-यही उसने अपने संस्कार में पाया था। पति के घर में दुल्हन बनकर आनेवाली स्त्री के कदम वहाँ से बाहर निकलते तो कैसे ? वर्जनाओं ने उसे सिखाया था कि वह शरीर त्यागने के बाद ही उस घर से बाहर निकलेगी।
वह वधू है। उसने वर का वरण किया है। वर ने उसका वरण किया है। उस वधू के साथ वर का सुख-दुख, सौभाग्य, दुर्भाग्य मान अपमान सब कुछ जुड़ जाते हैं। वह इन सबकी संभव से साझीदार बनती है, तो वर पुरुष की अर्द्धांगिनी-पत्नी-बन जाती है। उस पति को ही वह जन्म देती है, उसी की संतान के रूप में, तो जाया बनती है। जन्म देकर माँ बनती है। तो क्या अब वह काम्य प्रेरणा नहीं रही ? दायित्व बढ़ने से क्या वह ‘सुमंगली’ नहीं है, जिसका सौभाग्य कांक्षित है ? यदि ऐसा नहीं तो क्यों टूटती है वह दिन-रात, शहर-ग्राम- हर समय, हर स्थान। वह कौन-सा दर्द है, वह कैसी जिजीविषा है ?
वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गई है। शहर में है तो अफसरी से लेकर क्लर्की तक, वकालत से लेकर राजनीति तक, कला की दुकान लगाने से लेकर देह सँवारने तक, हर काम में दक्ष है, और पुरुष के साथ सहयोग करती है। गाँव में है तो गोबर के कंडे थापने से लेकर खेत में बुआई तक, पुरुष के साथ कर्मलीन है। परंतु, क्या वह पुरुष से भी सहयोग की अपेक्षा नहीं कर सकती ? श्रम-शक्ति का विभाजन तो जब था तब था। घर बार स्त्री का काम, कमाकर लाना पुरुष का काम। लेकिन, आज यदि कमाकर लाने में स्त्री पुरुष के बराबर है तो क्या घर चलाने की भी जिम्मेदारी पुरुष को स्त्री के साथ बाँटने की आवश्यकता नहीं है ? पुरुष का यह कैसा पौरुष है जो जहाँ चोट खाकर जगना चाहिए वहाँ जगता नहीं ? अहसास क्या केवल वांछनीय बने रहने का है या उस युग से लेकर आज इस युग तक भी असुरक्षित महसूस करती है अपने आपको वह ?
दक्ष प्रजापति को यदि यह पता होता कि अपने यज्ञ में जामाता शिव और पुत्री सती को न्योता न देकर वे एक ऐसी कुप्रथा के जन्म का कारण बनने वाले हैं, जिसमें युगों-युगों तक स्त्रियाँ होम होती रहेंगी तो शायद वे शिव के साथ अपना वैमनस्य भुलाकर उन्हें आमंत्रित कर ही लेते। पति के सम्मान की रक्षा के लिए पत्नी तब होम हुई थी। वह सहचरी, सहधर्मिणी का शायद पहली बार अनुचरी और अनुगामिनी बनना था। उस समय स्त्री ने पुरुष को अपना स्वामी माना, तब से वह स्वामी ही बना रहा। आज तक है, और उसका यह स्वामित्व स्त्री पर ही है।
राजा हरिश्चंद्र से यदि कोई यह पूछता कि तुम्हें किसने यह अधिकार दिया कि तुम अपने एक सत्य की रक्षा के लिए जीवन के दूसरे बड़े सत्य-अपनी पत्नी और पुत्र-की आहुति दे दो ? यदि तुम्हें निर्वाह नहीं करना था तो विवाह कर पत्नी का दायित्व लिया क्यों था ? और वह पत्नी भी सहती रही, पति द्वारा छोड़े जाने का दंश, पुत्र की मृत्यु का दंश। शैव्या ही बनी हरिश्चंद्र के सत्य के यज्ञ की सामग्री, उस यज्ञ की समिधा।
राम तो थे न मर्यादा पुरुषोत्तम ! पिता और श्वसुर-गृह में सुखों की शय्या की आदी सीता राम की अनुचरी बन वन को चली गई। तेरह वर्ष, तारों की छाँह के नीचे, पर्ण के बिछौने पर जिस सीता ने व्यतीत कर दिए, रावण से तिनके की आड़ में अपने शील की जो रक्षा करती रही, उसी सीता को देनी पड़ी अग्नि-परीक्षा-क्या राम के मन में संदेह नहीं उपजा था ? उस संदेह का निवारण अग्नि-परीक्षा के बाद भी नहीं हुआ, क्योंकि नगर के एक धोबी की छिपकर सुनी हुई बात ने उसे फिर से जगा दिया और गर्भवती सीता को फिर से वनवास भोगना पड़ा। शंकालु नहीं था यदि राम का मन, तो क्यों नहीं राज-पाट त्यागकर वह भी चल दिए सीता के साथ या क्यों नहीं बता दिया प्रजा को कि राजा को भी अपना निजी जीवन जीने का अधिकार है ? तभी तो आज जब पूजा-गृह में प्रार्थना का स्वर गूँजता है और परिवार में राम जैसे आदर्श पुरुष की कामना की जाती है, कि ‘हे प्रभु, हमें पुत्र दो तो राम जैसा, भाई दो तो राम जैसा, राजा दो तो राम जैसा, शिष्य तो राम जैसा, मित्र दो तो राम जैसा, और तो और शत्रु दो तो भी राम जैसा’, तब कोई नवयौवना राम जैसे पति की कामना नहीं करती।
युग के बदलने ने स्त्री के प्रति न तो पुरुष के व्यवहार में किसी प्रकार का अंतर लाने में सहयोग दिया और न ही उसकी पीड़ा को कम किया। स्त्री स्वयं भी अपने प्रति अनुदार हो गई। गांधारी आँखों पर पट्टी बाँधकर आजीवन धृतराष्ट्र के अंधेपन का शोक मनाती रही और द्रौपदी इच्छा-अनिच्छा से पाँच पतियों को समर्पित होती रही। कृष्ण रुक्मिणी का हरण कर ले गए और राधा को त्याग गए। न सही राधा ऐतिहासिक पात्र, सूर की अंधी आँखों से रचित वह वास्तविकता का बोध तो कराती रही।
स्त्री से सती-सावित्री होने की ही अपेक्षा की जाती रही, किसी एक समय, स्थान अथवा धर्म में नहीं, अलग-अलग समय में, अलग-अलग परिस्थितियों और परिवेश में, अलग-अलग जाति और धर्मों में। जोन ऑफ आर्क, ईसाइयों, की अपेक्षाओं का उदाहरण है। उधर हजरत मुहम्मद की बेगमें पवित्रता की ऐसी मूर्ति कि उन पर उँगली उठानेवाले सलमान रुश्दी पर मौत का फरमान जारी कर दिया गया। उसी इसलाम में एक ओर स्त्रियाँ बुर्का पहन हम किसी और के लिए उपलब्ध नहीं के झंडे गाढ़ती हैं, और फिर जब परदा छोड़ता है तो मीनाकुमारी, सायराबानों और नूरजहाँ हो जाती हैं। फिर चाहे अपने अभिनय और स्वरों के जादू से लाखों-करोड़ों लोगो की आँखों में बस जाती हैं।
वह स्त्री है, वह शाहबानों है जो पुरुषों के खिलाफ आवाज उठाती है। वह स्त्री है, वह रूप कुँवर है जो पति की चिता पर सती हो जाती है। वह कहीं बहती हुई नदी है, जिसमें हाथ धोना बहुत से लोगों का धर्म है। कहीं वह जलता हुआ अंगारा है जो कोठे पर बैठकर शरीर और मन दोनों से ही दहकती है और जाने किस किस को ठंडक पहुँचाती है। विश्वयुद्ध के थके सैनिकों की जब किसी शहर के पास आमद होती तो कोठों पर जाने की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दे दी जाती कि अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए वे घरेलू औरतों के साथ व्यभिचार न करने लगें।
स्वयं पुरुष के प्रति उसने अपना दायित्व समझा हो अथवा वह दायित्व-बोध उसे औरों द्वारा कराया गया हो, निर्वाह वह करती रही है, बिना किसी प्रतिफल के। वह द्रोपदी बनकर जुए में दाँव पर लगती रही है, लेकिन स्वर्गारोहण के समय रास्ते में गिर जाने पर अपने पतियों द्वारा पीछे मुड़कर देखने की अपेक्षा करने का अधिकार उसका नहीं है। वह पद्मिनी है तो जौहर करे और सती हो जाए, वह कर्मावती है तो अकबर को राखी भेजे, लक्ष्मीबाई है तो देश के लिए लड़ मरे, अरुणा आसफअली है तो स्वाधीनता के संग्राम में जुट जाए। वह माँ है तो पन्ना बने, वह पत्नी है तो शैव्या बने या फिर शालिनी मलहोत्रा बनकर, अपने ऊपर ह्विस्की उँडेलकर पति द्वारा जला डाली जाए। वह अलका और मुन्नी है तो गले में फंदा डालकर फाँसी लगा ले क्योंकि उसका पिता उसके लिए दहेज का जुगाड़ नहीं कर सकता। वह चाहे किसी गोत्र-कुल की हो, यदि वह स्त्री है तो उसे दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती मानकर कम से कम आज उसकी आराधना नहीं की जाती।
वह तब भी दुष्यंत द्वारा त्यागी जाती थी और उसकी संतान को वहन करती थी। आज भी पुरुष साफ दामन हो अलग हो जाता है और स्त्री ही व्यभिचारिणी कहलाती है। उसके लिए नियोग द्वारा वंश को बढ़ाने की व्यवस्था की पुरुष ने, उसके लिए एक, दो और तीन कमरों की व्यवस्था की पुरुष ने।
वह स्त्री है। भारत की वह गौरवपूर्ण स्त्री है जो एक कमरे की स्त्री है। ज्यादातर स्त्रियाँ एक ही कमरे में बंद हैं, उनसे कुछ कम हैं जो दो कमरे की औरतें हैं और वे स्त्रियाँ तो नगण्य हैं जो तीन कमरों में जिदगी जीती हैं। एक कमरे वाली स्त्री वह है जिसकी सारी जिंदगी रसोई में बसर होती है। दो कमरे वाली स्त्रियों का जीवनक्रम रसोई और बिस्तर से जुड़ा है। ऐसी स्त्रियाँ कम हैं जो रसोई और बिस्तर के बाद घर की बैठक में भी आकर बैठती हैं और वहाँ किसी चर्चा में भाग लेती हैं। पुरुष प्रधान समाज में अपना अलग अस्तित्व बनानेवाली स्त्रियों की गिनती तो उँगलियों पर की जा सकती है।
कहने को समय बदल गया। स्त्री प्रधानमंत्री हो गई, जज, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर, अफसर, और कलक्टर हो गई, अभिनय से लेकर पदयात्रा तक करने लगी, कवयित्री और समाज-सेविका बन गई, संपादक और मॉडल बन गई, लेकिन आम हिंदुस्तानी स्त्री की अपनी कोई भाषा कभी नहीं बनी। न उस वक्त थी जब कुंती ने उसे अपने पाँच पुत्रों के बीच बाँध दिया था, न आज है जब वह दहेज के बिना अपने लिए पति तलाशती बूढ़ी हो जाती है। सदियों से वह इसी मानसिकता में पत्नी है कि विवाह उसके लिए अनिवार्य है। पति के बिना नारी नारी नहीं है, पुत्रवती हुए बिना उसका जीवन व्यर्थ है, वह अपने निर्णय नहीं ले सकती। उसकी साधना और परिवार के प्रति दायित्वों का निर्वाह ही उसे पूर्ण बनाते हैं। पूर्णता की कामना उसने स्वयं भी की अवश्य है, लेकिन उसके लिए उसने कीमत क्या चुकाई है ? मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था, ‘‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।’’ लेकिन एक स्त्री वह थी जिसे परदे के पीछे घुटकर मरना स्वीकार्य नहीं था। वह खुली हवा में साँस लेना चाहती थी। स्वाधीनता आंदोलन में वह बापू की लाठी बनी और स्वाधीनता के बाद इंदिरा अम्माँ बनकर करोड़ों के मन में बस गई। फिर भी, स्त्री का जलना बंद नहीं हुआ। शराब के नशे में पति उसे पीटता रहा, वह पिटती रही, चुपचाप मुँह सीकर; क्योंकि उसकी आवाज बंद हो गई थी। चुप रहना और सहना ही नारी का परम धर्म है-यही उसने अपने संस्कार में पाया था। पति के घर में दुल्हन बनकर आनेवाली स्त्री के कदम वहाँ से बाहर निकलते तो कैसे ? वर्जनाओं ने उसे सिखाया था कि वह शरीर त्यागने के बाद ही उस घर से बाहर निकलेगी।
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